जब से घर आजा़दी आई।
बढ़ी कुशासन की प्रभुताई।।
जंगल राज शहर में आया,
जिसे देख पशुता चकराई।
बन्दी मोर, हंस पिंजड़ों में,
कौवों ने किस्मत चमकाई।
उपदेशक बिक रहे यहाँ पर,
रंग गेरुआ करे कमाई।
शोषक कुर्सी पाकर बैठे,
राजनीति बन गई कसाई।
कपटी गुरू, लालची चेला,
दोनों मिल खा रहे मलाई।
चंबल क्षेत्र हो गया खाली,
संसद डाकू-दली बनाई।
किसको कहें बात ये अपनी,
जला रही हिय को महँगाई।
सुखी यहाँ ‘अनमोल’ रहा है,
आशा मिली सदा दुखदाई।