महारानी अहिल्याबाई होलकर का जन्म 31 मई 1725 को चोंडी गाँव (चांदवड़), इंदौर राज्य, मराठा संघ, वर्तमान अहमदनगर (महाराष्ट्र) में हुआ था। अहिल्याबाई के पिता मानकोजी शिंदे एक मामूली किंतु संस्कार वाले आदमी थे। उस समय महिलाएँ स्कूल नहीं जाती थीं, लेकिन अहिल्याबाई के पिता ने उन्हें लिखने-पढ़ने लायक बनाया।
ऐसा कहा जाता है कि वे तब प्रमुखता से उभरीं जब मराठा पेशवा बाजीराव की सेना के कमांडर और मालवा के शासक मल्हार राव होल्कर पुणे जाते समय चंडी में रुके और गाँव के एक मंदिर की सेवा में आठ वर्षीय अहिल्या को देखा। उनकी धर्मपरायणता और चरित्र से प्रभावित होकर, मल्हार के बेटे खांडे राव होलकर ने पेशवा की सलाह पर अहिल्या से विवाह किया। उन्होंने 1733 में खांडे राव से शादी की।
सन 1745 में अहिल्याबाई के पुत्र हुआ और तीन वर्ष बाद एक कन्या। पुत्र का नाम मालेराव और कन्या का नाम मुक्ताबाई रखा। उन्होंने बड़ी कुशलता से अपने पति के गौरव को जगाया। कुछ ही दिनों में अपने पिता के मार्गदर्शन में खाण्डेराव एक अच्छे सिपाही बन गये। मल्हार राव को भी देखकर संतोष होने लगा। पुत्रवधू अहिल्याबाई को भी वह राजकाज की शिक्षा देते रहते थे। उनकी बुद्धि और चतुराई से वह बहुत प्रसन्न होते थे। अहिल्या कई अभियानों पर खांडे राव के साथ गईं। अपने पूरे वैवाहिक जीवन में उनका पालन-पोषण उनकी सास गौतम बाई ने किया, जिन्हें आज अहिल्या बाई के जीवन में स्थापित मूल्यों का श्रेय दिया जाता है। उन्होंने उसे प्रशासन, लेखा और राजनीति में प्रशिक्षित किया और अंततः 1759 में उसे खासगी जागीर सौंप दी।
1754 में, खांडे राव ने अपने पिता मल्हार राव होल्कर के साथ मुगल सम्राट अहमद शाह बहादुर के जनरल मीर बख्शी के समर्थन के अनुरोध पर भरतपुर के जाट राजा सूरज मल के कुम्हेर किले की घेराबंदी की। सूरजमल ने मुगल बादशाह के विद्रोही वजीर सफदर जंग का पक्ष लिया था। खांडे राव युद्ध के दौरान एक खुली पालकी में अपने सैनिकों का निरीक्षण कर रहे थे, तभी जाट सेना द्वारा छोड़ा गया एक तोप का गोला उन पर लगा, जिससे उनकी मृत्यु हो गई। पति की मृत्यु के बाद अहिल्याबाई को उनके ससुर ने सती होने से रोक दिया था। अपने पति के निधन के बाद, उन्हें मल्हार राव होलकर द्वारा सैन्य मामलों में प्रशिक्षित किया।
मल्हार राव के निधन के बाद रानी अहिल्याबाई ने राज्य का शासन-भार सम्भाला था। वे मालवा साम्राज्य की मराठा होलकर महारानी थीं। अहिल्याबाई किसी बड़े राज्य की रानी नहीं थीं, लेकिन अपने राज्य-काल में उन्होंने जो कुछ किया वह आश्चर्यचकित करने वाला है। वह एक बहादुर योद्धा और कुशल तीरंदाज थीं। उन्होंने कई युद्धों में अपनी सेना का नेतृत्व किया और हाथी पर सवार होकर वीरता के साथ लड़ीं।
रानी अहिल्याबाई ने अपनी मृत्यु (13 अगस्त सन् 1795) पर्यंत बड़ी कुशलता से राज्य का शासन चलाया। उनकी गणना आदर्श शासकों में की जाती है। अहिल्याबाई एक दार्शनिक रानी, धर्मपारायण स्त्री, हिंदू धर्म को मानने वाली और भगवान शिव की बड़ी भक्त थी। वे अपनी उदारता और प्रजा-वत्सलता के लिए प्रसिद्ध हैं। उनका इकलौता पुत्र मालेराव सन् 1766 ई. में दिवंगत हो गया। तब अहिल्याबाई ने 1767 ई. में तुकोजी होल्कर को सेनापति नियुक्त किया।
विशेष योगदान
रानी अहिल्याबाई ने भारत के भिन्न-भिन्न भागों में अनेक मन्दिरों, धर्मशालाओं का निर्माण कराया था। कलकत्ता से बनारस तक की सड़क बनवाई। बनारस में अन्नपूर्णा का मन्दिर तथा गया में विष्णु मन्दिर उनके बनवाए हुए हैं। इन्होंने अनेक घाट बनवाए, कुओं और बावड़ियों का निर्माण करवाया, मार्ग बनवाए, भूखों के लिए अन्नक्षेत्र खोले, प्यासों के लिए प्याऊ लगवाई, शास्त्रों के अध्ययन-अध्यापन हेतु मंदिरों में विद्वानों की नियुक्ति की। इसके अलावा उन्होंने काशी, गया, सोमनाथ, अयोध्या, मथुरा, हरिद्वार, द्वारिका, बद्रीनारायण, रामेश्वर, जगन्नाथ पुरी इत्यादि प्रसिद्ध तीर्थ स्थानों पर मंदिर बनवाए और धर्म शालाएँ खुलवाईं।
शिव जी की भक्त
उनका सारा जीवन कर्तव्य-पालन और परमार्थ की साधना में ही रहा। वे भगवान शिव की बड़ी भक्त थीं। बिना उनके पूजन के मुँह में पानी की बूंद नहीं जाने देती थीं। कहा जाता है कि रानी अहिल्याबाई के स्वप्न में एक बार भगवान शिव आए। इसलिए उन्होंने 1777 में विश्व प्रसिद्ध काशी विश्वनाथ मंदिर का जीर्णोद्धार कराया। सारा राज्य उन्होंने शंकर को अर्पित कर रखा था और आप उनकी सेविका बनकर शासन चलाती थीं। उनका पिचार था कि ‘‘संपति सब रघुपति के आहि‘‘ सारी संपत्ति भगवान की है। वे राजाज्ञाओं पर हस्ताक्षर करते समय अपना नाम नहीं लिखती थीं। नीचे केवल ‘श्री शंकर’ लिख देती थीं। उनके रुपयों पर शंकर का लिंग और बिल्व पत्र का चित्र अंकित था और पैसों पर नंदी का। उनके बाद में भारतीय स्वराज्य की प्राप्ति तक इंदौर के सिंहासन पर जितने नरेश आए सबकी राजाज्ञाएँ श्रीशंकर आज्ञा के रूप में जारी होती थीं।
अहिल्याबाई का रहन सहन बिल्कुल सादा था। शुद्ध सफेद वस्त्र धारण करती थीं। जेवर आदि कुछ नहीं पहनती थीं। भगवान की पूजा, अच्छे ग्रंथों को सुनना और राजकाज आदि में नियमित रहती थीं।
शांति और सुरक्षा की स्थापना
मल्हार राव होल्कर के जीवन काल में ही उनके पुत्र खंडेराव का निधन 1754 ई. में हो गया था। अतः मल्हार राव के निधन के बाद रानी अहिल्याबाई ने शासन की बागडोर अपने हाथ में ली, राज्य में बड़ी अशांति थी। चोर, डाकू आदि के उपद्रवों से लोग बहुत तंग थे। ऐसी हालत में उन्होंने देखा कि राजा का सबसे पहला कर्तव्य उपद्रव करने वालों को काबू में लाकर प्रजा को निर्भयता और शांति प्रदान करना है। उपद्रवों में भीलों का खास हाथ था। उन्होंने दरबार में अपने सारे सरदारों और प्रजा का ध्यान इस ओर दिलाते हुए घोषणा की ‘‘जो वीर पुरुष इन उपद्रवी लोगों को काबू में ले आवेगा, उसके साथ मैं अपनी लड़की मुक्ताबाई की शादी कर दूँगी।’’
इस घोषणा को सुनकर यशवंतराव फणसे नामक एक युवक उठा और उसने बड़ी नम्रता से अहिल्याबाई से कहा कि वह यह काम कर सकता है। महारानी बहुत प्रसन्न हुईं।
यशवंतराव अपने काम में लग गए और बहुत थोड़े समय में उन्होंने सारे राज्य में शांति की स्थापना कर दी। महारानी ने बड़ी प्रसन्नता के साथ मुक्ताबाई का विवाह यशवंतराव फणसे से कर दिया। इसके बाद अहिल्याबाई का ध्यान शासन के भीतरी सुधारों की तरफ गया। राज्य में शांति और सुरक्षा की स्थापना होते ही व्यापार, व्यवसाय और कला-कौशल की बढ़ोत्तरी होने लगी और लोगों को ज्ञान की उपासना का अवसर भी मिलने लगा। नर्मदा के तीर पर महेश्वरी उनकी राजधानी थी। वहाँ तरह-तरह के कारीगर आने लगे ओर शीघ्र ही वस्त्रों का निर्माण का वह एक सुंदर केंद्र बन गया।
राज्य के विस्तार को व्यवस्थित करके उसे तहसीलों और जिलों में बाँट दिया गया ओर प्रजा की तथा शासन की सुविधा को ध्यान में रखते हुए तहसीलों और जिलों के केंद्र स्थापित करके न्यायालयों की स्थापना भी कर दी गई। राज्य की सारी पंचायतों के काम को व्यवस्थित किया गया। आखिरी अपील मंत्री सुनते थे। परंतु यदि उनके फैसले से किसी को संतोष न होता तो महारानी खुद भी अपील सुनती थी।
सेनापति के रूप में
मल्हारराव के भाई बंधुओं में तुकोजीराव होल्कर एक विश्वास पात्र युवक थे। मल्हारराव ने उन्हें भी सदा अपने साथ में रखा था और राजकाज के लिए तैयार कर लिया था। अहिल्याबाई ने इन्हें अपना सेनापति बनाया और चौथ वसूल करने का काम उन्हें सौंप दिया। वैसे तो उम्र में तुकोजीराव होल्कर अहिल्याबाई से बड़े थे, परंतु तुकोजी उन्हें अपनी माता के समान ही मानते थे और राज्य का काम पूरी लगन ओर सच्चाई के साथ करते थे। अहिल्याबाई का उन पर इतना प्रेम था कि वह भी उन्हें पुत्र जैसा मानती थीं। राज्य के कागजों में जहाँ कहीं उनका उल्लेख आता है वहाँ तथा मुहरों में भी ‘खंडोजी सुत तुकोजी होल्कर’ इस प्रकार कहा गया है।
महिला सशक्तीकरण की पक्षधर
भारतीय संस्कृति में महिलाओं को शक्ति स्वरूपा दुर्गा के समान बताया गया है। ठीक इसी तरह अहिल्याबाई ने स्त्रियों को उनका उचित स्थान दिया। नारीशक्ति का भरपूर उपयोग किया। उन्होंने यह बता दिया कि स्त्री किसी भी स्थिति में पुरुष से कम नहीं है। वे स्वयं भी पति के साथ रणक्षेत्र में जाया करती थीं। पति के देहान्त के बाद भी वे युद्ध क्षेत्र में उतरती थीं और सेनाओं का नेतृत्व करती थीं। अहिल्याबाई के गद्दी पर बैठने के पहले शासन का ऐसा नियम था कि यदि किसी महिला का पति मर जाए और उसका पुत्र न हो तो उसकी संपूर्ण संपत्ति राजकोष में जमा कर दी जाती थी, परंतु अहिल्याबाई ने इस कानून को बदल दिया और मृतक की विधवा को यह अधिकार दिया कि वह पति द्वारा छोड़ी हुई संपत्ति की वारिस रहेगी और अपनी इच्छानुसार अपने उपयोग में लाए और चाहे तो उसका सुख भोगे या अपनी संपत्ति से जनकल्याण के काम करे।
दान व त्याग के कुछ उदाहरण
एक समय बुन्देलखंड के चन्देरी मुकाम से एक अच्छा ‘धोती-जोड़ा’ आया था, जो उस समय बहुत प्रसिद्ध हुआ करता था। अहिल्या बाई ने उसे स्वीकार किया। उस समय एक सेविका जो वहाँ मौजूद थी, वह धोती-जोड़े को बड़ी ललचाई नजरों से देख रही थी। अहिल्याबाई ने जब यह देखा तो उस कीमती जोड़े को उस सेविका को दे दिया।
इसी प्रकार एक बार उनके दामाद ने पूजा-अर्चना के लिए कुछ बहुमूल्य सामग्री भेजी थी। उस सामान को एक कमजोर भिखारिन जिसका नाम था सिन्दूरी, उसे दे दिया। किसी सेविका ने याद दिलाया कि इस सामान की जरूरत आपको भी है परन्तु उन्होंने यह कहकर सेविका की बात को नकार दिया कि उनके पास और हैं।
महिलाओं के प्रति करुणा
किसी महिला का पैरों पर गिर पड़ना अहिल्याबाई को पसन्द नहीं था। वे तुरंत अपने दोनों हाथों का सहारा देकर उसे उठा लिया करती थीं। उनके सिर पर हाथ फेरतीं और ढाढस बँधाती। रोने वाली स्त्रियों को वे उनके आँसुओं को रोकने के लिए कहतीं और उचित समय पर उनके उपयोग की बात कहतीं। उस समय किसी पुरुष की मौजूदगी को वे अच्छा नहीं समझती थीं। यदि कोई पुरुष किसी कारण मौजूद भी होता तो वे उसे किसी बहाने वहाँ से हट जाने को कह देतीं। इस प्रकार एक महिला की व्यथा, उसकी भावना को एकांत में सुनतीं, समझतीं थीं। यदि कोई कठिनाई या कोई समस्या होती तो उसे हल कर देतीं अथवा उसकी व्यवस्था करवातीं। महिलाओं को एकांत में अपनी बात खुलकर कहने का अधिकार था।
राज्य के दूरदराज के क्षेत्रों का दौरा करना, वहाँ प्रजा की बातें, उनकी समस्याएँ सुनना, उनका हल तलाश करना उन्हें बहुत भाता था। अहिल्याबाई, जो अपने लिए पसन्द करती थीं, वही दूसरों के लिए पसंद करती थीं। इसलिए विशेष तौर पर महिलाओं को त्यागमय उपदेश भी दिया करती थीं।
एक बार होल्कर राज्य की दो विधवाएँ अहिल्याबाई के पास आईं, दोनों बड़ी धनवान थीं परन्तु दोनों के कोई सन्तान नहीं थी। वे अहिल्याबाई से प्रभावित थीं। अपनी अपार संपत्ति अहिल्याबाई के चरणों में अर्पित करना चाहती थीं। संपत्ति न्योछावर करने की आज्ञा माँगी, परन्तु उन्होंने उन दोनों को यह कहकर मना कर दिया कि जैसे मैंने अपनी संपत्ति जनकल्याण में लगाई है, उसी प्रकार तुम भी अपनी संपत्ति को जनहित में लगाओ। उन विधवाओं ने ऐसा ही किया और वे धन्य हो गईं।
मृत्यु
राज्य की चिंता का भार और उस पर प्राणों से भी प्यारे लोगों का वियोग। इस सारे शोक-भार को अहिल्याबाई का शरीर अधिक नहीं संभाल सका और 13 अगस्त सन 1795 को (आयु 70 वर्ष) उनकी जीवन-लीला समाप्त हो गई। अहिल्याबाई के निधन के बाद तुकोजी इन्दौर की गद्दी पर बैठे।
तुकोजी का इन्दौर की गद्दी पर बैठना
अपने पति खांडे राव की मृत्यु के बाद, अहिल्याबाई ने जीवन की सभी इच्छाओं को त्याग दिया था और अपने पति के साथ उनकी चिता पर जाने के लिए सती होने का फैसला किया था। अंततः उसके ससुर मल्हार राव ने उसे रोकने के लिए मनाते हुए कहा कि ‘‘बेटी, मेरे बेटे ने मुझे छोड़ दिया, जिसे मैंने इस उम्मीद से पाला कि वह बुढ़ापे में मेरा सहारा बनेगा। अब, क्या तुम भी मुझ एक बूढ़े आदमी को अथाह सागर में डूबने के लिए अकेला छोड़ दोगी? फिर भी यदि तुम अपना मन नहीं बदलना चाहती तो पहले मुझे मरने दो।
मल्हार राव होलकर की मृत्यु उनके बेटे खांडे राव की मृत्यु के 12 साल बाद 1766 में हुई। मल्हार राव के पोते और खांडे राव के इकलौते बेटे माले राव होलकर 1766 में अहिल्याबाई के शासनकाल में इंदौर के शासक बने, लेकिन अप्रैल 1767 में कुछ ही महीनों के भीतर उनकी भी मृत्यु हो गई। खांडे राव के साथ उनके बेटे की मृत्यु के बाद अहिल्याबाई इंदौर की शासक बनीं।
1765 में मल्हार राव द्वारा उन्हें लिखा गया एक पत्र दर्शाता है कि राव ने उन्हें एक विशाल तोपखाने के साथ ग्वालियर के सैन्य अभियान पर भेजते समय उनकी क्षमता पर कितना भरोसा किया था।
अहिल्याबाई न केवल सैन्य रूप से प्रशिक्षित थीं, बल्कि उन्हें नागरिक और सैन्य मामलों को चलाने के लिए भी सक्षम माना जाता था। जब 1765 में अहमद शाह दुर्रानी ने पंजाब पर आक्रमण किया, तब मल्हार राव दिल्ली में अब्दाली-रोहिल्ला सेना से लड़ने में व्यस्त थे। उसी दौरान अहिल्याबाई ने गोहद किले (ग्वालियर के पास) पर कब्जा कर लिया।
पहले से ही शासक बनने के लिए प्रशिक्षित, अहिल्याबाई ने मल्हार राव और उनके बेटे की मृत्यु के बाद पेशवा माधव राव प्रथम से होल्कर राजवंश का प्रशासन देने के लिए याचिका दायर की। मालवा में कुछ लोगों ने उनके शासन संभालने पर आपत्ति जताई, लेकिन मराठा सेना के होलकर गुट ने उनका साथ दिया। पेशवा ने 11 दिसंबर 1767 को सूबेदार तुकोजी राव होल्कर (मल्हार राव के दत्तक पुत्र) को अपना सैन्य प्रमुख नियुक्त करते हुए उन्हें अनुमति दे दी। वह सबसे प्रबुद्ध तरीके से मालवा पर शासन करने के लिए आगे बढ़ीं, यहाँ तक कि एक ब्राह्मण को भी बहाल कर दिया जिसने पहले उसका विरोध किया था। अहिल्याबाई अपनी प्रजा के पास नियमित रूप से जाती थीं, जिससे उनकी सहायता की आवश्यकता वाले किसी भी व्यक्ति के लिए वे हमेशा उपलब्ध रहती थीं।
माले राव होल्कर की मृत्यु के बाद, मल्हार राव होल्कर के दीवान गंगाधर राव ने, अहिल्याबाई को एक कमजोर शक्तिहीन विधवा मानते हुए, अहिल्याबाई से उन्हें अपने बेटे के रूप में अपनाने और सभी प्रशासनिक शक्तियाँ देने का अनुरोध करके अपने लिए शाही अधिकार हड़पने की कोशिश की, लेकिन उन्होंने ऐसा करने से तुरंत इनकार कर दिया। तब गंगाधर राव ने उनके खिलाफ विद्रोह किया और पेशवा माधवराव के चाचा रघुनाथराव को इंदौर के होल्कर डोमेन पर हमला करने के लिए उकसाया। अपने जासूसों के माध्यम से शिप्रा नदी के तट पर रघुनाथराव की सेना के पड़ाव के बारे में पता चलने पर, अहिल्याबाई ने तुरंत अपने दिवंगत ससुर, महादजी सिंधिया और दामाजी राव गायकवाड़ के हम वतन लोगों को पत्र भेजकर सहायता मांगी और होल्कर को इकट्ठा किया।
तुकोजी की सहायता से नागपुर के भोंसले ने उनकी सहायता के लिए अपनी सेनाएँ भेजीं और पेशवा माधवराव ने अहिल्याबाई को रघुनाथराव के विरुद्ध आक्रामक कार्रवाई करने के लिए अधिकृत किया। अहिल्याबाई स्वयं अपनी महिला अंगरक्षकों के साथ रघुनाथराव का सामना करने के लिए युद्ध के मैदान में उतर गईं। अहिल्याबाई के साहस को देखकर, रघुनाथराव डर गए और यह कहते हुए पीछे हट गए कि वह सिर्फ माले राव की मृत्यु के लिए अहिल्याबाई को शोक व्यक्त करने आए थे।
राजपूतों से संघर्ष
लालसोट की लड़ाई में राजपूतों द्वारा महादजी सिंधिया के नेतृत्व वाली मराठा सेना को हराने के बाद अहिल्याबाई ने राजपूत छापे से अपने क्षेत्र की रक्षा की ।
अहिल्याबाई की उपलब्धियों में इंदौर को एक छोटे से गाँव से एक समृद्ध और सुंदर शहर में बदलना था। हालाँकि उनकी अपनी राजधानी निकटवर्ती महेश्वर में थी, जो नर्मदा नदी के तट पर एक शहर था। उन्होंने मालवा में कई बुनियादी ढाँचा परियोजनाएँ शुरू कीं, त्योहारों को प्रायोजित किया और कई हिंदू मंदिरों में नियमित पूजा के लिए दान दिया। अहिल्याबाई ने व्यापारियों, किसानों और कृषकों को समृद्धि के स्तर तक बढ़ाने का समर्थन किया और यह नहीं माना कि उनका उनकी संपत्ति पर कोई वैध दावा है, चाहे वह करों के माध्यम से हो या सामंती अधिकार के माध्यम से।
अपनी प्रजा के प्रति उनकी देखभाल की कई कहानियाँ हैं। एक उदाहरण में, जब उनके मंत्री ने एक बच्चे को गोद लेने की अनुमति देने से इनकार कर दिया, जब तक कि उसे उचित रिश्वत नहीं दी गई, तो कहा जाता है कि उसने बच्चे को स्वयं प्रायोजित किया और गोद लेने की रस्म के एक भाग के रूप में उसे कपड़े और गहने दिए।
अहिल्याबाई भीलों और गोंडों के मामले में शांति से संघर्ष नहीं सुलझा सकीं, जिन्होंने अनैतिक रूप से उसकी सीमाओं को लूटा लेकिन उसने उन्हें बंजर पहाड़ी भूमि और उनके क्षेत्रों से गुजरने वाले सामानों पर एक छोटे से शुल्क का अधिकार दिया।
महेश्वर में अहिल्याबाई की राजधानी साहित्यिक, संगीत, कलात्मक और औद्योगिक उद्यम का स्थल थी। उन्होंने प्रसिद्ध मराठी कवि मोरोपंत और महाराष्ट्र के शाहिर अनंतफंडी को संरक्षण दिया, और संस्कृत विद्वान खुशाली राम को भी संरक्षण दिया। शिल्पकारों, मूर्तिकारों और कलाकारों को उनकी राजधानी में वेतन और सम्मान मिलता था और उन्होंने महेश्वर में एक कपड़ा उद्योग भी स्थापित किया था ।
अहिल्याबाई ने उस पारंपरिक कानून को निरस्त कर दिया जो पहले राज्य को निःसंतान विधवाओं की संपत्ति जब्त करने का अधिकार देता था।
1780 में अपने पति की मृत्यु के बाद 16 वर्षीय बेटे की मृत्यु के बाद, अहिल्याबाई की बेटी मुक्ताबाई सती हो गईं ।
अहिल्याबाई के शासनकाल में महल होलकरों का आधिकारिक निवास था। होल्कर परिवार अपने व्यक्तिगत और पारिवारिक खर्चों को पूरा करने के लिए सार्वजनिक नकदी का उपयोग करने से बचने के लिए जाना जाता था। उनके पास अपनी निजी निधि थी, जिसे उन्होंने अपनी निजी संपत्ति के माध्यम से जमा किया था। अहिल्याबाई को विरासत में निजी धन मिला, जो उस समय अनुमानतः सोलह करोड़ रुपये था। अहिल्याबाई ने अपने निजी संसाधनों से धन दान में दिया।
1742 में, मराठा शासक मल्हार राव होल्कर ने मस्जिद को ध्वस्त करने और उस स्थान पर विश्वेश्वर मंदिर का पुनर्निर्माण करने की योजना बनाई। हालांकि उनकी योजना आंशिक रूप से अवध के नवाब के हस्तक्षेप के कारण सफल नहीं हो सकी। 1750 के आसपास, जयपुर के महाराजा ने काशी विश्वनाथ मंदिर के पुनर्निर्माण के लिए भूमि खरीदने के उद्देश्य से, स्थल के आसपास की भूमि का सर्वेक्षण करवाया। हालांकि मंदिर के पुनर्निर्माण की उनकी योजना भी सफल नहीं हो सकी। 1780 में, मल्हार राव की बहू अहिल्याबाई ने मस्जिद से सटे वर्तमान मंदिर का पुनर्निर्माण कराया। अहिल्याबाई ने 1780 में वाराणसी ( उत्तर प्रदेश ) में काशी विश्वनाथ मंदिर के पुनर्निर्माण के लिए धन दिया था, जिसे पहले नष्ट कर दिया गया था और बाद में 1669 में औरंगजेब ने इसे एक मस्जिद में बदल दिया था। श्री तारकेश्वर, श्री गंगाजी सहित 9 मंदिरों का निर्माण। अहिल्या द्वारकेश्वर, गौतमेश्वर (पुनः) मणिकर्णिका घाट, दशाश्वमेध घाट, जनाना घाट, अहिल्या घाट, शीतला घाट सहित घाटों का निर्माण य उत्तरकाशी धर्मशाला, रामेश्वर पंचकोशी धर्मशाला, कपिला धारा धर्मशाला और उद्यानों का निर्माण।
विष्णुपद मंदिर की वर्तमान संरचना का पुनर्निर्माण देवी अहिल्याबाई होल्कर ने 1787 में फल्गु नदी के तट पर किया था। उन्होंने अपने अधिकारियों को निरीक्षण करने और पूरे क्षेत्र में मंदिर के लिए सबसे अच्छा पत्थर खोजने के लिए भेजा, और अंततः उन्हें जयनगर में सबसे अच्छा विकल्प के रूप में मुंगेर का काला पत्थर मिला। चूँकि कोई उचित सड़क नहीं थी और पहाड़ गया से बहुत दूर थे, अधिकारियों को एक और पहाड़ मिला जहाँ वे नक्काशी कर सकते थे और आसानी से पत्थर को गया ला सकते थे, यह स्थान बथानी (गया जिले का एक छोटा सा गाँव) के पास था। अधिकारी राजस्थान से कारीगर लाए। उन्होंने पत्थरकट्टी (बिहार का एक गाँव और एक पर्यटक स्थल) में मंदिर बनाना शुरू किया। अंतिम मंदिर गया में विष्णुपद मंदिर स्थल के पास बनाया गया था। मंदिर का निर्माण पूरा होने के बाद कई शिल्पकार अपने मूल स्थानों पर लौट आए, लेकिन उनमें से कुछ पत्थरकट्टी गाँव में ही बस गए। बिहार सरकार ने इस स्थान को बिहार के प्रमुख पर्यटक स्थलों में से एक के रूप में चिह्नित किया है। विष्णुपद मंदिर के दक्षिण-पश्चिम में ब्रह्मजुनी पहाड़ी की चोटी तक जाने वाली 1000 पत्थर की सीढ़ियाँ गया शहर और विष्णुपद मंदिर का दृश्य देती हैं, जो एक पर्यटक स्थल है। इस मंदिर के पास कई छोटे-छोटे मंदिर भी हैं।
इतिहास में अहिल्याबाई
मध्य भारत में अहिल्याबाई का शासनकाल तीस वर्षों तक चला। यह उस काल के रूप में लगभग प्रसिद्ध हो गया है, जिसके दौरान उत्तम व्यवस्था और अच्छी सरकार कायम थी और लोग समृद्ध थे। वह एक बहुत ही सक्षम शासक और संगठनकर्ता थीं, जिनका इस दौरान बहुत सम्मान किया जाता था। उनके जीवनकाल में, और उनकी मृत्यु के बाद कृतज्ञ लोगों द्वारा उन्हें संत माना गया। - जवाहरलाल नेहरू, द डिस्कवरी ऑफ इंडिया (1946)
तीस वर्षों तक उसके शांति के शासनकाल में, भूमि का आशीर्वाद बढ़ता गया और उसे कठोर और सौम्य, बूढ़े और जवान, हर जीभ से आशीर्वाद मिला। हाँ, यहाँ तक कि अपनी माँ के चरणों में बैठे बच्चों को भी दोहराने के लिए ऐसी घरेलू कविताएँ सिखाई जाती हैं बाद के दिनों में ब्रह्मा से हमारी भूमि पर शासन करने के लिए, एक महान महिला आई, दयालु उसका दिल था और उसकी प्रसिद्धि उज्ज्वल थी, और अहिल्या उसका सम्मानित नाम था। - जोआना बैली, अंग्रेजी कविता (1849)
अहिल्याबाई की असाधारण क्षमता ने उन्हें अपनी प्रजा और नाना फड़नवीस सहित अन्य मराठा संघियों का सम्मान दिलाया। मालवा के मूल निवासियों के साथ… उनका नाम पवित्र है और उन्होंने अवतार या दिव्यता के अवतार की शैली धारण की है। गंभीर दृष्टि से उसके चरित्र को ध्यान में रखते हुए, वह निश्चित रूप से, अपने सीमित क्षेत्र के भीतर, अब तक के सबसे शुद्ध और सबसे अनुकरणीय शासकों में से एक प्रतीत होती है।
- जॉन मैल्कम, ए मेमॉयर ऑफ सेंट्रल इंडिया
इंदौर में इस महान शासक ने अपने क्षेत्र के सभी लोगों को अपना सर्वश्रेष्ठ करने के लिए प्रोत्साहित किया, व्यापारियों ने अपने बेहतरीन कपड़े तैयार किए, व्यापार फला-फूला, किसान शांति में थे और उत्पीड़न बंद हो गया, क्योंकि रानी के सामने आने वाले प्रत्येक मामले को गंभीरता से निपटाया जाता था। वह प्यार करती थी अपने लोगों को समृद्ध होते देखने के लिए, और अच्छे शहरों को विकसित होते देखने के लिए, और यह देखने के लिए कि उसकी प्रजा अपने धन का प्रदर्शन करने से न डरे, ऐसा न हो कि शासक उसे उनसे छीन ले, दूर-दूर तक सड़कों पर छायादार पेड़ और कुएं लगाए गए थे यात्रियों के लिए विश्राम गृह बनाए गए और गरीबों, बेघरों, अनाथों को उनकी जरूरतों के अनुसार मदद की गई। भील, जो लंबे समय से सभी काफिलों की पीड़ा का सबब बने हुए थे, उन्हें उनके पहाड़ी स्थानों से खदेड़ दिया गया और उन्हें ईमानदार बनकर बसने के लिए प्रेरित किया गया। किसान, हिंदू और मुसलमान समान रूप से प्रसिद्ध रानी का सम्मान करते थे और उनकी लंबी उम्र के लिए प्रार्थना करते थे। उनका अंतिम बड़ा दुख तब था जब उनकी बेटी अहिल्याबाई सत्तर वर्ष की थीं, जब उनकी लंबी और शानदार जिंदगी खत्म हो गई। इंदौर लंबे समय तक अपनी महान रानी का शोक मनाता रहा, उनका शासनकाल खुशहाल था और उनकी स्मृति को आज तक गहरी श्रद्धा के साथ संजोया जाता है। - एनी बेसेंट
मूल कागजात और पत्रों से, यह स्पष्ट हो जाता है कि वह प्रथम श्रेणी की राजनीतिज्ञ थीं, और इसीलिए उन्होंने महादजी शिंदे को अपना समर्थन आसानी से दे दिया था। मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि अहिल्याबाई के समर्थन के बिना, महादजी कभी ऐसा नहीं कर पाते। उत्तर भारत की राजनीति में इतना महत्व मिला।” -इतिहासकार जुदुनाथ सरकार
निश्चित रूप से कोई भी महिला और कोई भी शासक अहिल्याबाई होल्कर जैसा नहीं है। - हैदराबाद के निजाम
इससे बिना किसी संदेह के पता चलता है कि प्लेटो और भट्टाचार्य द्वारा वर्णित सभी आदर्श गुण उनके व्यक्तित्व में दिलीप, जनक, श्री राम, श्री कृष्ण और युधिष्ठिर जैसे मौजूद थे। दुनिया के लंबे इतिहास की गहन जांच के बाद, हमें केवल एक ही व्यक्तित्व मिलता है लोकमाता देवी अहिल्या एक बिल्कुल आदर्श शासक का प्रतिनिधित्व करती हैं।” – अरविंद जावलेकर
मालवा की दार्शनिक-रानी अहिल्याबाई होल्कर स्पष्ट रूप से व्यापक राजनीतिक परिदृश्य की गहन पर्यवेक्षक थीं। 1772 में पेशवा को लिखे एक पत्र में, उन्होंने अंग्रेजों के साथ संबंध के खिलाफ चेतावनी दी थी और उनके आलिंगन की तुलना भालू से की थी- आलिंगन- बाघ जैसे अन्य जानवरों को ताकत या युक्ति से मारा जा सकता है, लेकिन भालू को मारना बहुत मुश्किल है। यह तभी मरेगा जब आप इसे सीधे चेहरे पर मारेंगे, अन्यथा, एक बार इसकी शक्तिशाली पकड़ में फंस जाने पर, भालू अपने शिकार को गुदगुदी करके मार डालेगा। अँग्रेजों का यही तरीका है. और इसे देखते हुए, उन पर विजय पाना कठिन है।