दोहा, चौपाई, कवित्त, कुंडलिया, मुक्तक आदि हिंदी भाषा में छंदोबद्ध काव्य की विशिष्ट पहचान माने जाते हैं। यह सत्य है कि बिना काव्य-ज्ञान के छंदोबद्ध काव्य में सृजन करना नहीं आता। छंद लेखन में सफलता प्राप्त करने के लिए किसी सुयोग्य गुरु की शरण में जाना ही पड़ता है, निरंतर अध्ययन करना पड़ता है। हिंदी में अलंकार व विभिन्न रसों से ओतप्रोत काव्य श्रोता या पाठक को निश्चित ही काव्यानंद की अनुभूति कराता है। हिंदी भाषा में कविता-सृजन के लिए ‘शब्द शक्ति’ का भी ध्यान रखना पड़ता है। तत्सम, तद्भव और देशज आदि शब्दों के प्रयोग को चुनकर प्रयोग किया जाता है। यद्यपि गजल फारसी, उर्दू की समृद्ध परंपरा की द्योतक हैं, उसके लेखन में विभिन्न छंद (बहर) होते हैं फिर भी भाषा की दृष्टि से तथा शब्द शक्ति की दृष्टि से हिंदी/संस्कृत के काव्य की तरह उसमें अलंकार, रस आदि की समृद्ध शब्द-शक्ति नहीं होती। स्मरण रहे हिंदी/संस्कृत भाषा के व्याकरण में किसी भी अक्षर/वर्ण के नीचे नुक्ता (.) लगाने का नियम नहीं है।
गजल मूल रूप से अरबी से फारसी में, फारसी से उर्दू में और उर्दू से हिंदी में आई है। इसलिए ये बहर बाहर से आगत मानी जाती है। यह भी सत्य है कि अब यही गजल उर्दू भाषा से भी अधिक हिंदी भाषा में फल-फूल रही है। इसके उदाहरण रूप में वर्तमान में काव्य-मंचों एवं गोष्ठियों में बोलते हुए हिंदी भाषी गजलकार बहुतायत में मिल जाते हैं।
वास्तव में देखा जाए तो आजकल गजल प्रस्तुत करने के लिए जितने उर्दू के मुशायरे आयोजित नहीं होते उससे ज्यादा तो हिंदी की काव्य गोष्ठियों में हिंदी के कवि ही गजल की प्रस्तुति करते हुए दिखाई देते हैं। चाहे ऐसे नवोदित गजलकारों की रचनाएँ उर्दू व्याकरण की कसौटी पर खरी न उतरें परंतु उनका झुकाव गजल के प्रति ही रहता है। कई बार ऐसे तथाकथित गजल प्रेमियों की स्थिति हास्यास्पद भी हो जाती है।
आजकल हिंदी कवियों का झुकाव छंदोबद्ध काव्य की अपेक्षा ‘हिंदी गजल’ (गीतिका) के प्रति सहजता से होता जा रहा है। शायद यह समय की माँग है। गजल का हिंदी में स्वागत करते हुए इसको अपनाते हुए कुछ प्रतिष्ठित कवियों ने अपनी-अपनी समझ से नए-नए नाम भी दिए हैं। गजल को किसी ने गीतिका माना है तो किसी ने तेवरी, पूर्णिका, अजल या सजल माना है अथवा किसी और अन्य नाम से भी अभिहित किया है। अस्तु, कुछ भी हो लेकिन ये तो मुक्तकंठ से कहा ही जा सकता है कि अब हिंदी भाषा ने गजल (बहर) छंद को मानव जीवन का विस्तृत क्षेत्र देकर हिंदी भाषा के अंग के रूप में स्वीकार कर लिया है।
फारसी में गजल का अर्थ ‘प्रेम या प्यार की बातें’ होता है। इसीलिए पहले इस बहर का प्रयोग केवल प्यार-मुहब्बत की वार्तालाप के वर्णन के लिए हुआ करता था। हिंदी में आने पर गजल का प्रयोग सार्वभौमिक विषय आधरित हो गया। इसीलिए आजकल इसका प्रयोग जीवन के हर क्षेत्र में हो रहा है। व्यवसाय, राजनीति, मानव-व्यवहार, सत्संगति, दुराचार और युवाओं को दिशा-निर्देश देने में अथवा अन्य क्षेत्र में भी इसका प्रयोग प्रचुर मात्रा में हो रहा है।
गजल से मिलते-जुलते दो पंक्तियों (मिसरों) वाले हिंदी के अनेक छंद होते हैं। ध्यान रहे हिंदी के किसी भी छंद का गजल के मिसरे से साम्यता नहीं हो सकती। यानी दो पंक्तियों (चार पदों) में लिखा हिंदी का कोई भी छंद गजल नहीं हो सकता। दोहा लेखन का व्याकरण अलग है और गजल लिखने का अलग। दोहे की तरह दो-दो पंक्तियों में चौपाई, सोरठा, छप्पय आदि छंद लिखे जाते हैं।
श्रोता या पाठक को जो आनंद हिंदी के छंदोबद्ध काव्य को पढ़कर या सुनकर आता है, शायद उतना किसी अन्य भाषा के छंद में आता होगा। गजल में भले ही लगभग अठारह बहर बताई जाती हैं लेकिन व्यवहार में उनका प्रयोग आधे से भी कम दिखाई देता है। इसके उलटे हिंदी भाषा में पूर्व प्रतिष्ठित अनगिनत छंद हैं। जिनका प्रयोग छंद के कवि लोग प्रायः अपनी लेखन या वाचन की कविताओं में करते रहते हैं। मंचों पर वाचिक परंपरा में तो इन्हीं हिंदी के छंदों के स्वर सुनकर श्रोता मंत्रमुग्ध हो जाते हैं। छंदोबद्ध काव्य के विपुल उदाहरण हमें हिंदी भाषा के कविकुलगुरु गोस्वामी तुलसीदास के महाकाव्य ‘रामचरितमानस’ और उनके अन्य ग्रंथों में प्रचुर मात्रा में मिल जाते हैं। मीरा, सूरदास, रसखान, बिहारी आदि सगुण भक्तिकाव्य के कवियों एवं दादू, रेदास, नानक, कबीर आदि निर्गुण कवियों का साहित्य इन छंदों से भरा पड़ा है। इन्हीं के पुरातन छंदों को आज भी कथा वाचक अपनी कथा के बीच में प्रसंगानुकूल दृष्टांत के रूप में मधुर कंठ से गाकर सुनाते हैं।
ऐसा नहीं है कि छंदोबद्ध काव्य का सृजन अब कम हो रहा है लेकिन गजल की लेखन कला की सुलभता के कारण नौसिखिया उसी में ही हाथ आजमा रहे हैं। चाहे उनका यह प्रयास बालसुलभ क्रीडा के समान ही क्यों न हो। हिंदी के पुरातन छंदों में काव्य-सृजन करने में अधिक श्रम करना पड़ता है। उक्त काव्य-श्रम से बचने के लिए हिंदी के नवोदित कवि अंत में गजल में ही लिखने का प्रयास करने लग जाते हैं।
ये भी जरूरी नहीं कि हिंदी में गजल लिखने वाला व्यक्ति उस बहर में ठीक ही लिख रहा हो। चाहे हिंदी कविता हो या उर्दू गजल इनसे संबंधित बुनियादी बातें तो इन दोनों के लिखने वालों को ज्ञात होनी ही चाहिए। ये जरूरी है कि कविता हिंदी-छंद में करें या उर्दू गजल की किसी भी बहर में उस छंद की मूल प्रकृति को जानना तो जरूरी है ही। जो रचनाकार बिना काव्य-व्याकरण जाने केवल कविता सुनकर और उससे आकृष्ट होकर लिखते हैं, वे ‘लंबी रेस के सफल धावक’ की तरह प्रतिष्ठित नहीं हो पाते। इस प्रसंग में उन दिग्भ्रमित नौसिखियों के लिए एक दोहा उपयुक्त बैठता है-
पहन मुखौटा सिंह का, घर में छिपे सियार।
पग-पग पर ही भय लगे, मिले न जग में प्यार।।
उर्दू गजल का अरूज (व्याकरण) अरबी, फारसी भाषा की प्रकृति के अनुरूप होता है, उसी तरह हिंदी के छंदोबद्ध कविताओं का व्याकरण हिंदी भाषा की प्रकृति तथा देवनागरी लिपि के अनुसार होता है, उन दोनों के व्याकरण में कई अर्थों में भिन्नता होती है। उर्दू की गजल के पैकर (स्वरुप) में और नज़्म (कविता) में आमूलचूल अंतर होता है। गजल के व्याकरण के अनुसार उसका हर शेर अपना अलग-अलग मफहूम (अर्थ) रखता है जब कि नज़्म प्रारंभ से लेकर अंत तक अपने उन्वान (शीर्षक) के कथ्य का ही वर्णन करती है।
उर्दू के एक शेर में दो चरण (पंक्तियाँ) होती हैं। पहले चरण को ‘मिसरा’ कहते हैं और दो मिसरे मिलकर एक शेर बनता है। किसी भी मिसरा के पहले चरण को ‘उला’ और दूसरे चरण को ‘सानी’ कहते हैं। प्रत्येक शेर के दोनों मिसरों में रब्त (संबंध) होना नितांत आवश्यक होता है। गजल की उपर्युक्त जानकारी का उद्देश्य यह बताना है कि ‘उर्दू ग़ज़ल’ और ‘हिंदी गजल’ यानी गीतिका का कथ्य भले ही एकसाम्य व प्रभावी हो सकता है लेकिन इन दोनों के व्याकरण में कोई साम्यता नहीं होती है।
हिंदी के पुरातन व प्रतिष्ठित छंद उतने सरल नहीं होते, जितने वे समझे जाते हैं। इन छंदों में काव्य-सृजन कठिनतम होता है। इसलिए छंदों की दुरूहता के कारण नवांकुरों का झुकाव छंदोबद्ध काव्य के प्रति कम माना जा सकता है। हिंदी छंदों के व्याकरण के सभी नियमों को ध्यान में लाकर छंद रचना करने से ही शुद्ध कविता बनती है। हिंदी छंदों के इसी व्याकरण के काठिन्य से बचने के लिए आजकल ‘मुक्त छंद’, प्रगतिवादी कविता, प्रयोगवादी कविता, अकविता, नयी कविता या अतुकांत कविता (गद्यात्मक कविताएँ) प्रचुर मात्रा में लिखी जा रही हैं। भले ही मुक्त छंद की कविताओं में हृदय के भावों का प्रकटीकरण आसानी से हो जाता है लेकिन कविता बोलने और श्रोता के रूप में सुनने का आनंद केवल छंदोबद्ध कविता में ही आता है। दिन-प्रतिदिन उपर्युक्त मुक्त छंदों में लिखने वाले तथाकथित कवियों की संख्या बढ़ती ही जा रही है। कुछ भी हो जब प्रभु की तथा गुरु की कृपा होती है तभी हिंदी छंदों का ज्ञान होता है।
स्मरण रहे ‘हिंदी गजल’ में हृदय के भाव प्रकट करने में हिंदी भाषा सदा से ही सक्षम रही है। इसलिए हिंदी गजल/गीतिका में अपने हृदय की बात कहने के लिए हिंदी से इतर भाषा सीखने की अनिवार्यता कोई जरूरी नहीं है। ‘हिंदी में लिखी हुई गजल’ अपने कथ्य और हृदय के भाव संप्रेषण से श्रोताओं तक संदेश पहुँचाने में बोधगम्य होने को ज्यादा महत्त्व देती है। वैसे तो हिंदी भाषा की प्रकृति हिंदी के प्रतिष्ठित छंदों के प्रकटीकरण के लिए ही अधिक उपयुक्त मानी जाती है परंतु ‘हिंदी गजल’ यानी गीतिका के प्रयोग में भी किसी से कम नहीं है।
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