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  आर्यावर्त की इस भूमि पर काव्य/साहित्य में छंदों का प्रयोग सदा से ही होता रहा है। प्रमाणित है कि छंदशास्त्र अत्यन्त प्राचीन है। सबसे पहले ‘संस्कृत छंदों’ के उदाहरण अपौरुषेय कहलाने वाले वेदों में मिलते हैं। संस्कृत में रचित वेद ‘वैदिक छंद’ में ही सृजित हैं। वेद के मंत्र छंदोबद्ध होते हैं। अतः छंदों के ज्ञान के बिना वेदमंत्रों का शुद्ध उच्चारण करना कठिन है। अतः छह वेदांगों में छंद को प्रमुख स्थान मिला है। वेदपुरुष के पाद से छंद का जन्म बताया जाता है- ‘‘छंदः पादौ तु वेदस्य हस्तौ कल्पोऽथ पठ्यते’’। ऋग्वेद के सात प्रसिद्ध छंद हैं- गायत्री, उष्णिक्, अनुष्टुप्, बृहती, विराट, त्रिष्टुप् और जगती। यास्काचार्य विरचित निरुक्तग्रंथ में और ब्राह्मण ग्रन्थों में छंदों का अनेक प्रकार से वर्णन मिलता है। शौनक विरचित ऋक्प्रातिशाख्य के अंतिम भाग में छंदों का पर्याप्त वर्णन लिखा है।
    वैयाकरण पाणिनी के अनुसार छदि धातु से छंद शब्द की उत्पत्ति हुई। ‘छादयति आच्छादयति वा इति छंदः’ अर्थात जो पाप से आच्छादित करता है वह छंद है। तैत्तिरीय संहिता में छंद की उत्पत्ति के विषय में लिखा है- ‘देवा छन्दोभिरात्मानं छादयित्वा उपायन् प्रजापितिरग्निं चिनुतः’ अर्थात देव छंद से शरीर को आच्छादित करके अग्नि के साथ जाकर अक्षत रूप में पुनः आ गए। ऐतरेय अरण्यक में लिखा है कि- ‘मानवान् पापकर्मेभ्यः छंदयंति छन्दांसि इति छंदः।’
    पिंगलाचार्य ने छंदसूत्र ग्रंथ की रचना की। छंदशास्त्र का ‘पिगंल छंदसूत्र’ नामक ग्रन्थ विद्यमान है। इसमें वैदिक और लौकिक छंदों का सविस्तार वर्णन लिखा है। जैसे वृत्तरत्नाकर में कहा गया-
पिंगलादिभिराचार्यैयदुक्तं लौकिकं द्विध।
मात्रा वर्ण विभेदेनच्छन्दस्तदिह कथ्यते।।
    अर्थात पिंगलाचार्य ने छंद के दो भेद कहे हैं- लौकिक और वैदिक। उनमें भी लौकिक छंद मात्रा एवं वर्ण भेद से पुनः दो प्रकार के हैं। छंदोमंजरी ग्रन्थ में काव्य-लक्षण लिखा है-
पद्यं चतुष्पदी तच्च वृत्तं जातिरिति द्विधा।
वृत्तमक्षर संख्यातं जातिर्मात्रा कृता भवेत्।।
    अर्थात ‘पद्यं चतुष्पदी’ चतुर्ष्णाम् पदानां समाहारः अर्थात चार पादात्मक पद्य होता है। कवि गंगादास का आशय है कि छंदशास्त्र के पारिभाषिक पादचतुष्टय समाहार रूप में वाङ्मय ही पद्य होता है। यह पद्य दो प्रकार का होता है 1. वृत्त पद्य 2. जाति पद्य। उनमें अक्षर गण युक्त पद्य को वृत्त और मात्रिक गण युक्त पद्य को जाति कहते हैं। वृत्तपद्य के उदाहरण हैं- वसन्ततिलका आदि।
   आदिकाल में छंद शास्त्र के मूल प्रणेता कौन-कौन रहे हैं यह कहना कठिन है। यद्यपि इतिहास में छंद प्रणेताओं के रूप में अनेक प्रतिष्ठित छंद शास्त्रियों के नाम सम्मान के साथ लिए जाते हैं। इनमें कुछ के ग्रंथ उपलब्ध हैं तो कुछ के अप्राप्य हैं।
     छंद शास्त्र विषयक ग्रंथों के नाम-1. निदानसूत्रम् 2. ऋग्वेद प्रातिशाख्यम् 3. ऋक्सर्वानुक्रमणी 4. छन्दः शास्त्रम् एवं छन्दः सूत्रम् 5. उपनिदान सूत्रम् 6. अग्नि पुराणम् 7. जय देवच्छन्दः 8. वृत्त मुक्तावली। इनके अतिरिक्त छंद शास्त्र से संबंधित कुछ अन्य ग्रंथ भी उपलब्ध हैं-1. नाट्यशास्त्रम् 2. ज्ञानाश्रयी छंदोविचितिः 3. स्वयंभुच्छंदः 4. गाथालक्षणम् 5. बृहत्संहितावृत्ति: 6. जयकीर्ति कृत छंदोऽनुशासनम् 7. वृत्तजाति समुच्चयः 8. छंदः शेखरः 9. रत्नमंजूषाछंदः शास्त्रम् 10. सुकवि हृदयनन्दिनी कृत वृत्तरत्नाकरवृत्तिः 11.कविदर्पणम् 12.अजितशान्तिस्तव टीका 13. प्राकृतपैंड्लम् 14. छन्दः कोशः 15 वृत्तरत्नावलिः 16 रामचन्द्र विबुध कृत वृत्तरत्नाकर टीका 17. वृत्तमौक्तिकम् 18. वृत्तमौक्तिकम् (भाग-2) 19. समय सुन्दर कृत वृत्तरत्नाकर टीका 20. वृत्तरत्नाकरसेतुः 21. वृत्तरत्नाकरनारायणी 22. वृत्तमुक्तावली 23. वृत्तरत्नाकर भावार्थ दीपिका 24. छंदः कौस्तुभः 25. वाग्वल्लभः वरवर्णिनी 26. छंदः संदोहः
    इनके अतिरिक्त पुरातन छंद शास्त्रियों के काल खंड का निर्धरण करना कठिन है। उनमें कुछ ज्ञात एवं बहुश्रुत नाम हैं-
1.आचार्य पिंगल कृत पिगंल छंदसूत्र 2.आचार्य हेमचंद्र कृत छंदोऽनुशासन 3.आचार्य केदारभट्ट कृत वृत्तरत्नाकर 4.कवि कालिदास कृत श्रुतबोध 5.आचार्य दुखभंजन कृत वाग्बल्लभ 6.आचार्य दामोदर मिश्र कृत वाणीभूषणम् 7.आचार्य क्षेमेंद्र कृत सुवृत्ततिलक 8.आचार्य भानु कृत छंद भास्कर 9. स्वामी गंगादास कृत छंदोमंजरी आदि प्रमुख हैं।
   छंद के ग्रंथों में पुरातन और नवीन कतिपय अन्य नाम भी हैं- जगन्नाथ प्रसाद भानु कृत ‘छन्द प्रभाकर’, आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ‘काव्यकला’, आचार्य ओम नीरव ‘छंद विज्ञान’, राजेन्द्र वर्मा ‘रस छंद अलंकार’, एवं रामदेव लाल विभोर, ओमप्रकाश ‘ओंकार’ कृत ‘छन्द क्षीरधि तथा नारायण दास कृत ‘हिन्दी छन्दोलक्षण’ आदि।
    छंद-शास्त्र के प्रणेता आचार्य पिंगल ऋषि का ही अनुगमन वर्तमान में सहजता से करते हुए छंद-शास्त्र को ‘पिगंल-शास्त्र’ पुकारा जाता है। प्रसिद्ध छंद शास्त्री भिखारीदास ने पुरातन लीक से हटकर हिंदी छंदों में अनेक नए प्रयोग भी किए। हिंदी भाषा के छंद प्रायः संस्कृत भाषा से आगत होने के कारण संस्कृत भाषा को ही छंद-सृजन की जननी माना जाता है। यह सर्वथा सत्य है कि पहले साहित्य-सृजन संस्कृत भाषा के किसी न किसी ‘छंद’ में ही होता था। कोई रचनाकार अपनी किसी रचना को जितने क्लिष्ट शब्दों में पद-लालित्यपूर्ण छंद में रचता था, वह उतना ही छंद का ज्ञाता एवं छंद-शास्त्र का पंडित माना जाता था।
   आचार्य केदारभट्ट के अनुसार अक्षर गणना-भेद से संस्कृत छंदों के नाम हैं- एक अक्षर के छंद का नाम उक्ता, दो अक्षर के छंद का नाम अत्युक्ता, तीन अक्षर के छंद का नाम मध्या, चार अक्षर के छंद का नाम प्रतिष्ठा, पाँच अक्षर के छंद का नाम सुप्रतिष्ठा, छह अक्षर के छंद का नाम गायत्री होता है। सात अक्षर के छंद का नाम उष्णिक्, आठ अक्षर के छंद का नाम अनुष्टुप्, नौ अक्षर के छंद का बृहती, दस अक्षर के छंद का नाम पंक्ति है।
     इसी तरह ग्यारह अक्षर के छंद का नाम त्रिष्टुप्, बारह अक्षर के छंद का नाम जगती, तेरह अक्षर के छंद का नाम अतिजगती, चौदह अक्षर के छंद का नाम शक्वरी, पंद्रह अक्षर के छंद का नाम अतिशक्वरी, सोलह अक्षर के छंद का नाम अष्टि, सत्रह अक्षर के छंद का नाम अत्यष्टि, अठारह अक्षर के छंद का नाम धृति उन्नीस अक्षर के छंद का नाम अतिधृति, बीस अक्षर के छंद का नाम कृति, इक्कीस अक्षर के छंद का नाम प्रकृति, बाईस अक्षर के छंद का नाम आकृति, तेईस अक्षर के छंद का नाम विकृतिः, चौबीस अक्षर के छंद का नाम संस्कृति, पच्चीस अक्षर के छंद का नाम अतिकृति, छब्बीस अक्षर के छंद का नाम उत्कृति।
   वैदिक संस्कृत साहित्य में प्रायः निम्नलिखित छन्दों का प्रयोग हुआ है- 1. अनुष्टुप् 2. उपजातिः (इन्द्र-उपेन्द्रवज्रा) 3. वंशस्थ 4. उपेन्द्रवज्रा 5. इन्द्रचा 6. पुष्पिताग्रा 7. वैतालीयन् 8. द्रुतविलम्बितम् 9. रथोद्धता 10. मन्दाक्रान्ता 11. वियोगिनी 12.उपजातिः 13. वसन्ततिलका 14. प्रमिताक्षरा 15.प्रहर्षिणी 16.स्वागता 17. उद्रता 18.औपच्छंदसिकम् 19. उपगीत्यार्या 20.मालिनी 21.स्रग्धरा 22.रुचिरा 23. शालिनी 24. शार्दूलविक्रीडितम् 25. शिखरिणी 26.हरिणी 27. आर्या एवं 28. सनुभाषिणी
     पुरातन काल में लिखे गए ‘गद्य खंड’ की बात करें तो ज्ञात होता है कि पहले संस्कृत-साहित्य जितना छंदोबद्ध काव्य में लिखा गया, उससे एक चौथाई भी गद्य विधा में नहीं लिखा गया। संस्कृत भाषा में थोड़े से ग्रंथ ही गद्य में प्राप्त होते हैं। यद्यपि गद्य की प्रशंसा करते हुए संस्कृत के कवि बाण ने तो यहाँ तक कह दिया कि-‘गद्यं कवीनां निकषं वदंति’ अर्थात गद्य को कवियों की कसौटी कहा जाता है। इस सबके उपरांत यानी गद्य के बारे में इतनी महिमा होने पर भी पहले संस्कृत कवियों का रुझान कविता को ‘छंदोबद्ध’ (काव्यात्मक रूप) में लिखने में ही रहा है।
उपर्युक्त से स्पष्ट है कि संस्कृत से ऊर्जस्वित होने के कारण हिंदी भाषा के साहित्य-लेखन में ‘छंदोबद्ध’ परिपाटी का ही अनुसरण हुआ। गोस्वामी तुलसीदास जी का ‘रामचरितमानस’ महाकाव्य हमारे सामने इस बात का सटीक उदाहरण है। अन्य कवियों जैसे- चंदबरदाई, अमीर खुसरो, रसखान, मीराबाई, सूरदास आदि ने हिंदी-छंद का सहारा लेकर गेयता पूर्ण शैली में अपने-अपने भजन, मुकरी, पद, कवित्त आदि की रचनाएँ कीं। सधुक्कड़ी भाषा के लोक कवि कबीर ने भी अपनी रचनाओं (साखी और सबद) में गेयता (छंद) का यथासंभव ध्यान रखा है।
    युग परिवर्तन के साथ ही काव्य में छंद-प्रयोग के विषय में रचनाकारों की पसंद भी बदलती जा रही है। वर्तमान में ‘कठिन से सरल की ओर’ की विचारधरा बलवती होने के कारण नवागंतुक रचनाकारों में ‘मुक्त छंद’ में कविता लिखने का प्रचलन बढ़ रहा है, जिसके कारण हिंदी के विभिन्न पुरातन छंदों में यानी छंदोबद्ध काव्य सृजन का रुझान धीरे-धीरे कम होता दिखाई दे रहा है।
    ‘मुक्त छंद’ काव्य में लेखन में सबसे पहले वर्तमान युग के अनेक हिंदी कवियों जैसे- सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, नागार्जुन, सुमित्रानंदन पंत, महादेवी वर्मा आदि प्रतिष्ठित रचनाकारों ने अपनी रचनाएँ रचकर पहल की है और ‘मुक्तछंद’ को साहित्य में प्रतिष्ठापित किया है। यह बात सर्वथा सत्य है कि वर्तमान में ‘मुक्त छंद’ कविता का प्रचलन बढ़ रहा है।
    यह भी सर्वथा सत्य है कि ‘मुक्तछंद’ कविता भाव की दृष्टि से भले ही बोधगम्य होती है परंतु काव्य-शिल्प और गेयता का अभाव होने से श्रोता के हृदय पर प्रभाव नहीं छोड़ती जितना छंदोबद्ध कविता अपनी लय, तुक और काव्यत्व के विभिन्न गुणों रस, अलंकार, आरोह-अवरोह के माध्यम से अमिट प्रभाव छोड़ती है।
वर्तमान में नवोदित एवं मुक्त छंद प्रेमी कवियों में छंदोबद्ध काव्य-सृजन करने का उतना व्यापक उत्साह दिखाई नहीं दे रहा। फिर भी छंदोबद्ध कविताओं का सुविज्ञ कवियों के माध्यम से प्रचुर मात्र में काव्य-सृजन हो रहा है। इससे हम कह सकते हैं कि परंपरागत कविताओं का पहले भी उच्च स्थान था, आज भी है और आने वाले समय में भी निश्चित ही रहेगा।
   कतिपय विद्वानों का मानना है कि गद्यात्मक (मुक्तछंद) कविताओं के सृजन में लगने वाले श्रम की अपेक्षा छंदोबद्ध कविताओं में कहीं अधिक ‘काव्य-सृजन श्रम’ लगता है। इसीलिए मुक्तछंद कविताओं का लेखन सहज है।
    वैसे भी ‘छंद-ज्ञान’ के बिना छंदोबद्ध कविताओं का सृजन करना सबके बस की बात भी नहीं मानी जाती।
    काव्यांश में प्रयुक्त वर्णों की संख्या एवं शब्द क्रम, मात्रा-गणना तथा यति-गति से सम्बद्ध विशिष्ट नियमों से नियोजित काव्य रचना ‘छंद’ कहलाती है। छंद से काव्य में लय और रंजकता आती है। छंद की व्यवस्था में मात्रा अथवा वर्णों की संख्या, विराम, गति, लय तथा शब्दांत तुक आदि के नियमों को भी पूरी तरह निर्धारित किया जाता है, जिनका पालन छंद-सृजक कवि को करना होता है। इसे दूसरे अर्थ में अंग्रेजी में ‘मीटर’, अथवा उर्दू-फारसी में ‘रुक्न’ (अरकान) के नाम से भी जाना जाता है।
   छंदोबद्ध कविता में सौंदर्यचेतना का प्रभाव स्थायी होता है। इसमें जो चिरस्थायी ग्रहण शक्ति है वह मुक्तछंद में नहीं होती। छन्दोबद्ध रचना का हृदय पर सीधा प्रभाव पड़ता है। छंदों के माध्यम से कही गई कोई बात श्रोता के हृदय पर गहरी छाप छोड़ती है। मानवीय भावों को आकृष्ट करने और झंकृत करने की अद्भुत क्षमता केवल छन्दोबद्ध काव्य में ही होती है।
    इससे स्पष्ट हो जाता है कि छंदोबद्ध रचना केवल हृदय को प्रसन्न करने वाली (आह्लादकारिणी) या कर्णप्रिय ही नहीं होती, वरन वह चिरस्थायिनी भी होती है। जो रचना छंद में बँधी नहीं होती उसे हम सहजता से याद नहीं रख पाते। कालांतर में विस्मृति के कारण वह नष्ट हो जाती है। छंदोबद्ध काव्य का सबसे बड़ा प्रमाण ‘रामचरितमानस’ के मानवीय चेतना तथा नीति-ज्ञान से युक्त दोहे व चौपाइयाँ हैं। इसी तरह दोहावली, कवितावली भी इसी श्रेणी में आती हैं। ये काव्य प्रत्येक कथा वाचक के कंठ में श्रोताओं के सामने प्रस्तुत करने के लिए हर समय उपस्थित रहते हैं। ओज के कवियों की कविताओं को लोग उदाहरण देकर गाते हैं।
    भारतीय ग्रामीण क्षेत्रों में गाए जाने वाले आल्हा, बारहमासी तथा विशिष्ट अवसरों पर गाए जाने वाले लोकगीत आदि इसके प्रमुख इदाहरण हैं। सुभद्रा कुमारी चौहान द्वारा रचित जनजागरण गीत-‘‘खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी’’ को गाते हुए लोग आज भी सुने जाते हैं। कवि नरोत्तमदास द्वारा रचित श्रीकृष्ण की भक्ति के कवित्त, सवैया छंद श्रीकृष्ण-सुदामा के प्रसंग में आज भी भक्ति-साहित्य के उदाहरण बने हुए हैं। मीरा, रसखान, सूरदास की रचनाएँ तथा गिरधर की कुंडलियाँ भी इसी कोटि में आती हैं।
     सरल शब्दों में यह जान लेना चाहिए कि जो पद-रचना, अक्षर, अक्षरों की गणना, क्रम, मात्रा, मात्रा की गणना, यति-गति आदि नियमों में बद्ध हो, वह रचना छंदोबद्ध कहलाती है।
   मुक्त छंद कविता केवल अर्थ या भाव के आधार पर लिखी जाती है लेकिन छंदोबद्ध रचना काव्य के छंदशास्त्र के अनुसार निर्धारित छंदों में ही लिखी जाती है। इसमें छंद-सृजन के नियम काव्य-सृजन के मानक होने से आधार माने जाते हैं।
   स्मरण रहे छंदोबद्ध कविता का सृजन छंदशास्त्र का समुचित अध्ययन किए बिना नहीं हो सकता। छंद हृदय की सौंदर्य भावना जाग्रत करते हैं। छंदोबद्ध कविता में एक विशेष प्रकार का आनंद रहता है, जो श्रोता या पाठक को कविता सुनने से अथवा पढ़ने से प्राप्त होता है, बस इसी को साहित्यिक भाषा में ‘रस’ कहा जाता है। छंदोबद्ध कविता में ‘तुकांत शब्द’ छंद का प्राण कहलाता है- यही श्रोता या पाठक की अंतः आनंद-भावना को प्रेरित करता है। छंद में भाव की तरलता, सहजता, लय-ताल का अलौकिक आनंद रहता है।
    आध्यात्मिक परिवेश में गाए जाने वाले भजन भी प्रायः इन्हीं छंदों की श्रेणी में आते हैं। भजन गाने वाला गायक भक्ति में डूबकर भाव और अर्थ केे आधार पर भक्ति-रस का केवल पान ही नहीं करता अपितु उसके द्वारा गाया हुआ भजन का ध्वन्यात्मक रूप कर्णप्रिय होने से श्रोताओं को रस की अनुभूति भी कराता है। यही स्थिति उस श्रोता की भी होती है, जो उस भजन को सुनकर आनंद के रस में डूब जाता है। काव्य लय-ताल में होने से ही भजन में ताली, मजीरे, मृदंग, ढोलक, पखावज आदि वाद्य यंत्र बजाए जाते हैं।
   इसके विपरीत मुक्तछंद कविता में शुष्कता और बोध कठिनता रहती है। उसको देर तक सुनने में श्रोता या पाठक की समझने में रुचि-क्षीण होने लगती है। जबकि छंदोबद्ध रचना में स्थायित्व अधिक होता है। श्रोता अपनी स्मृति में ऐसी रचनाओं को दीर्घकाल तक सँजोकर रख सकता है और मौज-मस्ती के समय अपने मन ही मन में गुनगुनाने भी लग जाता है। यही कारण हैं कि गद्य की अपेक्षा छन्दोबद्ध काव्य ‘मानवीय स्मृति-पटल’ पर अधिक प्रभावोत्पादक माना जाता है। वर्तमान में मंचीय कवियों को छंदोबद्ध कविताओं के लिए जितना सम्मान मिलता है, शायद उतना मुक्तछंद कविता विधा के लिए नहीं मिलता।
    हिंदी में भक्ति काव्य रचयिता स्वनामधन्य पुरातन कवियों ने छंदोबद्ध कविताओं को बड़ी सहृदयता से अपनाया था। उपर्युक्त आधार से हिंदी के छंद अनावश्यक और निराधर नहीं कहे जा सकते। अतः स्पष्ट है कि छंदों की अपनी विशेष उपयोगिता और महत्ता पहले भी मानी जाती थी, आज भी मानी जाती है और भविष्य में भी मानी जाती रहेगी।
            आचार्य अनमोल

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