यूँ तो अनेक कवि अपनी किताब की भूमिका के लिए पाण्डुलिपियाँ भेजते रहते हैं और जितना भी संभव होता है, मैं उन्हें पढ़कर भूमिका लिख भी देता हूँ। ये किताबें अधिकांशतः कविताओं की होतीं हैं, जिनमें सिर्फ भाव देखना होता है। यदा-कदा शिल्प की चर्चा भी कर लिया करते हैं किंतु एक लंबे अंतराल के बाद ऐसी पाण्डुलिपि आयी, जिसे पढ़कर भाव और शिल्प दोनों ने बरबस मेरा ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया है। यह कृति है आचार्य अनमोल की ‘हिंदी छंद मंजूषा’।
पाण्डुलिपि का प्रत्येक पृष्ठ शास्त्रीयता से भरा हुआ है। यह शास्त्रीयता है छंद की। चूँकि मैं स्वयं छंद शास्त्र का विद्यार्थी हूँ और छंद सीखने का प्रयास निरंतर करता हूँ। ऐसे में उसी धरा के किसी साथी से मिलना और छंदों को पढ़ना निश्चित रूप से मेरे लिए उल्लास से भरने वाला पुनीत कार्य है। आचार्य अनमोल ने आज के युग में जब कविता ‘मुक्त छंद’ की राह पर चल रही है ऐसे में छंद-शास्त्र का सृजन कर न केवल भावों को संजोया है वरन छंदों को भी संरक्षित करने का उपक्रम किया है। उनका यह कार्य अभिनंदनीय है।
हिंदी छंद मंजूषा में आचार्य अनमोल ने छंद की परिभाषा और इतिहास से लेकर उनके भेदों को विस्तार पूर्वक समझाया है। कृति के प्रारंभ में ही ‘हिंदी छंदों का महत्त्व’ शीर्षक से शोधपरक संग्रहणीय लेख दिया गया है। जिसमें छंद की परंपरा और प्राचीन लक्षण ग्रंथों का उल्लेख करते हुए छंद की मीमांशा की गई है। कृति में आचार्य अनमोल जी ने एक और विशिष्ट लेख दिया है जिसमें ‘काव्य रचना के दोष’ बताये हैं। सामान्यतः कवि भाव में डूबते हुए लेखन करता जाता है, उसे किसी तरह के दोष का अहसास ही नहीं होता। यह अहसास इसलिए भी नहीं होता क्योंकि वह जानता ही नहीं कि किन बातों से कवि को बचना चाहिए। यह लेख प्रत्येक कवि को पढ़कर कोशिश करनी चाहिए कि वह इन दोषों से बचे। आचार्य अनमोल जी ने प्रयास किया है कि सामान्य पाठक भी यदि कृति को पढ़े तो उसे भी शिल्प की समझ आ सके। बात छंद की करें तो कृति में मात्रिक छंद, वर्णिक छंद, मुक्तक छंद और मुक्त छंद का विवेचन मिलता है। इसके साथ ही नवीन छंदों में गीतिका छंद/हिंदी गजल, जापानी छंद (हाइकू), विभिन्न वर्ण पिरामिड, साॅनेट और माहिया छंद का शिल्प विधन बताकर एक स्तुत्य कार्य किया है।
वर्णिक छंदों को समझने के लिए वर्ण विधान और मात्रिक छंदों के लिए मात्रा कलन का सरल भाषा में विवेचन, केवल कवियों के लिए ही नहीं वरन हर उस विद्यार्थी के लिए अहम है जो छंद को समझना चाहते हैं। आज के दौर में अनेक बड़े-बड़े अध्येता भी जिन छंदों के नाम भी नहीं जानते उनका शिल्प और उदाहरण आचार्य अनमोल ने कुशलता के साथ प्रस्तुत किया है।
कृति को पढ़ते हुए जब पाठक एक पृष्ठ से दूसरे पर जाते हैं तो उस पृष्ठ से संबंधित कुछ प्रश्न उनके मानस पटल पर दस्तक देते हैं। आचार्य अनमोल ने कोशिश की है कि आपकी जिज्ञासा का अगले पृष्ठ पर समाधान हो सके। जब हम छंद के महत्व को पढ़ रहे होते हैं तो अच्छी रचना के लिए किन ‘बातों’ से बचना चाहिए यह प्रश्न उठता है। इसका समाधन अगले पृष्ठ में ‘काव्य रचना के दोष’ लेख में मिल जाता है। इसी प्रकार जब हम काव्य रचना के दोष समझ रहे होते हैं तो प्रश्न आता है कि अच्छी रचना के लिए किस तरह शब्द संयोजन होना चाहिए। इस प्रश्न का समाधान ‘शब्द शक्ति’ लेख में सविस्तार मिलता है। यही क्रम पूरी कृति में चलता है।
छंद पर चर्चा करते हुए सबसे पहले मात्रिक छंद पर बात करते हैं। मात्रिक छंद वह छंद होता है जिसमें मात्राओं के भार के आधार पर छंद का निर्धरण होता है। इसमें भी सममात्रिक, अर्ध सममात्रिक और विषम मात्रिक छंद होते हैं। आचार्य अनमोल जी ने तीनों भेदों के स्वरचित मौलिक उदाहरण प्रस्तुत किये हैं। जिसमें सममात्रिक छंद के अंतर्गत मानव छंद (14 मात्रा) का उदाहरण देखें-
भारत भू को अर्पण है, सब कुछ उसे समर्पण है,
देश हमारा है न्यारा, सबको लगता है प्यारा।।
मैं प्रभु का रूप निहारूँ, नाम उसी का उच्चारूँँ,
सुख मिलता अनमोल यहाँ, फिर दुख रहता शेष कहाँ।।
इसी तरह पियूष वर्ष/आनंदवर्धक छंद (19 मात्रा) का प्रयोग भी उन्नत रूप में हुआ है। इस छंद में 10 और 9 के योग से 19 मात्राएँ होतीं हैं। 19 मात्राओं के चार चरण होते हैं, प्रति दो चरण तुकांत होते हैं। अंत में गुरु लघु होता है तथा 3, 10, 17 वीं मात्रा लघु होती है।
प्यार बिना कुछ भी, नहिं नर वेश में,
व्यर्थ में धिक्कार, पाई देश में।
कर दिया रिपु-वंश, धूसर धूल में,
नित किए हैं पाप, धन की भूल में।।
इसी में यदि दो लघु को एक गुरु किया जाए तो आनंदवर्धक छंद कहलाता है। आचार्य अनमोल ने उसका उदाहरण भी प्रस्तुत किया है-
कर्म मनुज का बन जाता सौभाग,
बिन इसके घर आता है दुर्भाग।
इससे ही मनुज जग में सुख पाता,
इसके बिन ही हृदय में दुखियाता।।
अर्धसम मात्रिक छंद में बरवै, दोहा, सोरठा, उल्लाला, ताटंक, कुकुभ, लावणी के अतिरिक्त अन्य छंद भी सोदाहरण संग्रहित किये गये हैं। सोरठा का उदाहरण देखें-
किसके लागूँ पैर, कौन जगत में मित्र है।
रखो स्वयं की खैर, धोखा सारे दे रहे।।
मात्रिक छंद के अंतर्गत विषम मात्रिक के प्रयोग भी साहित्यानुरागियों को पसंद आयेंगे ऐसा विश्वास है।
मात्रिक के पश्चात वर्णिक छंदों का शिल्प भी संग्रह में दिया गया है। इसमें वर्णिक छंद के दोनों भेद- 1. साधरण छंद, 2. दण्डक छंद के विविध भेदों को भी आचार्य अनमोल जी ने बखूबी सजाया है।
वर्णिक छंद के सर्वाधिक लोकप्रिय छंद, सवैया और घनाक्षरी के सोदाहरण भेद भी अनमोल छंद मंजूषा में मिलेंगे। इसके साथ ही मुक्तक छंद और मुक्त छंद का शिल्प विधान भी कृति के माध्यम से समझा जा सकता है। उपरोक्त छंदों के साथ ही जापानी छंद हाइकू, साॅनेट को उदाहरण सहित कवि ने समझाने का प्रयास किया है।
आधुनिकता की दौड़ में जब सब कुछ सरलता की ओर जा रहा है। प्रायः नवोदित कवि मुक्त छंद की ओर आकर्षित हो रहे हैं। ऐसे में अपने शास्त्रीय स्वरूप को सहेजना निश्चित रूप से ‘छंदोबद्ध काव्य की जड़ों’ को सींचने जैसा है। हमारा भारतीय छंद-विधान अनुपम है। उसे नई पीढ़ी तक भेजने के लिए इस तरह के प्रयोग किये जाने चाहिए। आचार्य अनमोल ने इसी जिम्मेदारी को निभाते हुए यथासंभव छंदों को सहेजने का प्रयास किया है, इस श्रमसाध्य कार्य के लिए मैं उन्हें साधुवाद देता हूँ। छंद-विधान बताने का कार्य बड़ा है, त्रुटियाँ होना सहज हैं। कृति को शिल्प और भाव दोनों दृष्टियों से पढ़ें, जहाँ कहीं कमी लगे तो कवि को अवश्य अवगत करायें ताकि उसे आगे सुधारा जा सके। ‘हिंदी छंद मंजूषा’ छंद-विधान की दिशा में मील का पत्थर साबित होगी ऐसा विश्वास है। मैं आचार्य अनमोल की स्वस्थ जीवन की कामना करता हूँ। अनंत शुभकामनायें….।
दि० 28-05-2024
नरसिंहपुर
गुरु सक्सेना
बाइपास रोड, संस्कार सिटी,
नरसिंहपुर (म०प्र०) पिन-487001
20 नवम्बर 2024 @ 3:43 पूर्वाह्न
हिंदी छंद मंजूषा पुस्तक की सुंदर समीक्षा की गई है छंद शास्त्र के ज्ञाता गुरु सक्सेना जी को नमन आचार्य अनमोल को बधाई