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कन्या की करुण पुकार

कन्या होकर मैं अति खुश हूँ,
देवों को भी प्यारी हूँं।
पर क्यों मुझको ऐसा लगता,
मैं अबला, बेचारी हूँ।।

जिस घर में आती है कन्या,
दौलत नित बरसाती है।
देव वहीं हर्षित अति रहते,
नारी पूजी जाती है।।

घर बनता नारी से सुंदर,
होता है मधुमास वहाँ।
नारी बिन घर खाली होता,
है भूतों का वास वहाँ।।

कन्या से घर महका रहता,
उसको शुभ अति माना है।
सृष्टि-जनक होती है कन्या,
सप्तपदी में जाना है।।

कन्या के घर आने पर ही,
क्यों करते प्रतिकार वहाँ।
कन्या जब घर में आए,
करो सभी सत्कार वहाँ।।

श्रद्धा मन से दूर हुई क्यों,
आज विषमता जागी है।
सत्य-राह को बिसराकर ही,
स्वार्थ भावना दागी है।।

प्रसव मास नव कष्ट उठाकर,
मात किसे क्या कहती है।
संतति का सुख पाने को ही,
प्रसव वेदना सहती है।।

होता है जब जन्म सुता का,
भावों में सब बहते हैं।
जब कन्या आती है घर में,
पीड़ा मन में सहते हैं।।

है क्यों भेद सुता औ सुत में,
दुविधा मन में कपट भरी।
पुत्र-जन्म पर क्यों खुश होते,
लगती पुत्री दर्द भरी।।

दुर्गा का अवतार पूजते,
याद करो वह कन्या थी।
जिसने की थी रक्षा जग की,
मात रूप में धन्या थी।।

वंदनीय होती है कन्या,
कन्या पहले आई थी,
जग है सारा कन्याधारित
उसने सृष्टि रचाई थी।।

कन्या रचती इस वसुधा को,
शोभा दुगुनी होती है।
कन्या होती सृष्टि-नियंता,
कन्या माणिक-मोती है।।

जग-आधार यहाँ कन्या है,
बिन उसके संसार कहाँ।
बिन कन्या के चैखट सूनी,
कन्या जैसा प्यार कहाँ।।

कन्या जब खुश होती घर में,
सकल धरा मुस्काती है।
सुमन तभी सौरभ देते हैं,
कन्या पूजी जाती है।।

स्वार्थ कर्म अब देखो जग में,
नर में कल्मष भरा हुआ।
पुत्र वंश का वाहक है ये,
भेद नरों का करा हुआ।।

सुत औ सुता मध्य दोनों में,
सुत को उत्तम माना है।
कन्या संतति हुई पराई,
उसको पर-घर जाना है।।

विपदा जब घर में है आती,
दुर्गा फिर पूजी जाती।
कन्या का ही त्याग करें फिर,
बुद्धि कहाँ तब खो जाती।।

है ये भेद विषमता वाला,
भेदी का दिल काला है।
कपट हृदय में भरा हुआ औ,
रखता कर में माला है।।

जन्म यहाँ पाया जब मैंने,
स्वार्थ कपट बोने आया।
घर में पुत्र-लालसा जागी,
अमन-चैन खोने आया।।

लोग खुशी से थे पागल सब,
बच्चे सबको प्यारे थे।
हुआ जन्म जब मेरा घर में,
सब के सब दुखियारे थे।।

माँ को ताना देकर के सब,
कष्ट हृदय भर लेते थे।
जुल्म किया क्या माँ ने ऐसा,
माँ को कुलटा कहते थे।।

माता ने जब मुझको देखा,
खिँची पटल पर कटु रेखा।
सरिता सूख गई ममता की,
किया मात ने अनदेखा।।

हाय! विधाता ने क्यों मुझको,
कन्या रत्न बनाया है।
दिया जन्म जिस माँ ने मुझको,
उसने ही ठुकराया है।।

हुआ जन्म मेरा अति दुख में,
बैंड बजा ना शहनाई।
हुआ मुखर मातम भी घर में,
मैं बन गई थी दुखदाई।।

जुल्म किया क्या मैंने ऐसा,
मन से कोई न हर्षाया।
पाकर मेरा जन्म हृदय से,
हर चेहरा था मुरझाया।।

लोग स्वार्थ के झूले में कुछ,
भ्रम में आकर झूल गए।
कन्या होती है लौ घर की,
सत्य बात वे भूल गए।।

दीपक-बाती कन्या होती,
घर को रोशन करती है।
पति के भी वह घर जाकर के,
खुशियाँ तन से भरती है।।

पुत्र सदा अपने ही घर को,
प्यार जन्म से करता है।
कन्या का नित जन्म यहाँ पर,
अनुपम सौरभ भरता है।।

अनसूया, गौतमी, अपाला,
सीता जगत-निराली थीं।
लक्ष्मी, गार्गी और अहल्या,
जग उद्धाक वाली थीं।।

चेन्नम्मा, औ मीराबाई,
सबने मार्ग दिखाया था।
घोषा, बिहुला ने तप-बल का,
लोहा भी मनवाया था।।

देख सुनीता के करतब से,
सकल जगत हर्षाता है।
पी० टी० ऊषा नाम हिंद का,
मन में सुख भर जाता है।।

शंकर के सत् ज्ञान रूप को,
मण्डन ने सम्मान दिया।
पति को विजय दिलाने को ही,
पत्नी ने शास्त्रार्थ किया।।

वीर शिवा को हिम्मत, साहस,
माँ ने ही सिखलाया था।
बुन्देलों को भारत माँ ने,
सोते हुए जगाया था।।

आज वही माँ की ममता भी,
पाप स्वयं करवाती है।
अपने ही उस भ्रूण-अंश को,
उर में ही मरवाती है।।

पुत्र जन्म देकर के नारी,
मन ही मन इठलाती है।
पूत कपूत भले बन जाए,
पुत्र जन्म ही चाहती है।।

जब माँ ने मेरे भाई को,
हँसी-खुशी से जन्म दिया।
सबको लगा कि अपने घर में,
आया कुल का अमर दीया।।

पुत्र जन्म से घर भी महका,
घर में अति खुशियाँ छाईं।
हर्षोत्सव घर में था आया,
खुशियाँ थीं सबने गाईं।।

मधुर मिलन की इस वेला में,
घर में बजती शहनाई।
दीपक के आने पर कुल में,
सबके मुख आभा छाई।।

उस दिन मुझको लगा यही था,
जन्म यहाँ विरथा पाया।
कवियों ने क्यों नारी का गुण-
गान मुखर होकर गाया।।

धिक् ऐसे जग-जीवन को है,
शठ-संगति मैंने पाई।
भूल हुई मुझसे शायद ये,
सुता-जन्म ले हर्षाई।।

बिन चाहे कन्या घर आती,
दुर्गति जग में होती है।
दुख-माला के जीवन में वह,
मनके नित्य पिरोती है।।

कन्या जब घर में आए तो,
मत उसका अपमान करो।
बनकर के ‘अनमोल’ सभी जन,
कन्या का सम्मान करो।।

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नारी पर अत्याचार

कायर जो नर होता जग में,
अतिशय रूप दिखाता है।
अत्याचारी बनकर वह,
कन्या पर हाथ उठाता है।।

धीर-वीर जो भी नर होता,
कभी न मन में डरता है।
करे सामना संघर्षों से,
विपदा से नित लड़ता है।।

आज जगत में शोषण, हिंसा,
केवल नारी सहती है।
मूक बना संसार देखता,
नारी पीड़ित रहती है।।

एक ‘जेसिका’ ने बतलाया,
अत्याचारी मानव है।
रोत-रोते कहे ‘दामिनी’,
छुपा नरों में दानव है।।

ऐसी कितनी ही श्रद्धाएँ,
रोज यहाँ पर रोती हैं।
‘नैना’ जैसी धोखा खाकर,
जीवन अपनी खोती हैं।।
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कन्या की महिमा

ज़हर पुत्र की इच्छा वाला
पुरुष वर्ग ने खाया है।
भूल गए वे निज माता को,
जिसने उनको जाया है।।

एक तरफ माता स्त्री है,
पत्नी दूजी तरफ खड़ी।
घर में बहन-भाई का रिश्ता,
फिर क्यों बेटी पीर बड़ी।।

दादी-नानी-बूआ-चाची,
ये रिश्ते भी प्यारे हैं।
घर में जो भी आ जाते हैं,
सबके सब घरवारे हैं।।

भेद मध्य परिवार-जनों में,
सुख-शक्ति को है खाता।
कन्या भ्रूण-उदर मरवाकर,
मानव मन में दुख पाता।।

इस धरती पर ऋषि ने माँ की,
महिमा अतिशय गाई है।
माँ की ममता देख सुता को,
मन ही मन हर्षाई है।।

पार्वती औ मात सती अति,
दुर्गा परम विचित्रा थीं।
विश्वबारा, दमयंती जैसी,
पावन गात सुचित्रा थीं।।

काव्यसृजन कर श्रेष्ठ ललद्यद,
जीवन-तप दर्शाया था।
मात द्रौपदी कष्ट सहे पर,
परम देवि-पद पाया था।।

जीजाबाई औ झलकारी,
रण-अस्तित्व दिखाया था।
वृंदा ने निज पति की खातिर,
मान सभी से पाया था।।

आज विषमता क्यों जागी जो,
कन्या को मरवाते हैं।
पुत्र-जन्म को पाकर घर में,
मन ही मन इठलाते हैं।।

कन्या घर की आन-बान है,
नित घर को महकाती है।
अपनी ललित सुलभ क्रीडा से,
सबका मन बहलाती है।।
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भारत में भ्रूण हत्या के कुछ कारण

भूख, गरीबी इस वसुधा पर,
पाप सदा करवाती है।
इसीलिए कन्या को उर में,
जन्म-पूर्व मरवाती है।।

कन्या की शादी में वर भी,
माँग बहुत दिखलाता है।
वर का पिता साँप से चौड़ा,
अपना मुँह फैलाता है।।

दहेज प्रथा को सदा-सदा से,
मन का पाप बताया है।
लेकिन भूखे, दुष्ट जनों ने,
इसको भी झुठलाया है।।

वर का पिता फुलाकर सीना,
दर्प-भाव दिखलाता है।
सुत की शादी के बदले में,
अनुपम दौलत पाता है।।

सुनकर माँग सुता का बाबुल,
मन ही मन अकुलाता है।
कन्या को मत देना भगवन,
यही भाव दोहराता है।।

कन्या दी तो धन भी देना,
पिता अर्ज यह करता है।
लेकर क़र्ज करी शादी तो,
जीवनभर वह भरता है।।

शिक्षा औ बिन ज्ञान यहाँ पर,
कुछ जन अब भी रहते हैं।
थोथी बातें वे नित करते,
बात पुरातन कहते हैं।।

क्रूर यवन के भय के कारण,
कन्या-हत्या होती थी।
किसी कल्प में, किसी वक़्त में,
कभी न कन्या रोती थी।।

व्यर्थ ग्रंथ में लिखा हुआ है,
वंश-बेल सुत होता है।
बिन पुत्रों के पितर वृद्धतम,
भूखा निश-दिन रोता है।।

पितर हृदय से पिंड ग्रहण कर,
सुख-सौरभ को देता है।
निज वंशी से वह हर्षाता,
हव्य-कव्य नित लेता है।।

पिंडदान पौराणिक गाथा,
सुत के हित में जाता है।
कन्या के आने के कारण,
पिता हृदय घबराता है।।

आज वक़्त विष वाला आया,
व्यक्ति अहं को दिखलाता।
अपने मुख से निज कर्मों की,
यश-गाथा को बतलाता है।।

पुत्र सदा ही मात-पिता के,
यश का वाहक होता है।
इसीलिए उत्तम गुण वाला,
सुत संवाहक होता है।।

लोक-प्रथा में भी कुछ बातें,
जन-मन को बहकाती हैं।
कानों से कानों के द्वारा,
जनश्रुति ही बन जाती हैं।।

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भ्रूण हत्या- एक पाप

मात-पिता का दोष यहाँ पर,
घर में सुत को पाने का।
पाप उन्हीं के मन में जागा,
कन्या को मरवाने का।।

भेद पुत्र और पुत्री का,
इस जग में ही पाया है।
इसी बात को कवियों ने भी,
मुखरित होकर गाया है।।

जब कन्या आई थी उर में,
पुत्र-मोह घर में जागा।
सब में मोह लालसा पाकर,
घर से सौख्य दूर भागा।।

उर में छुपी हुई नव कन्या,
मन में अतिशय मुर्झाई।
सुनकर कपट उन्हीं के मुख से,
प्रबल वेदना भर लाई।।

चुपके से माता ने जाकर,
भ्रूण-खंड करवाया था।
सुत के लालच में अति आकर,
कन्या को मरवाया था।।

सुत का मोह जगा था मन में,
सुत ही सबको प्यारा था।
कन्या को मरवाया चुपके,
पिता स्वयं हत्यारा था।।

कन्या का अभिशाप उसी का,
निशदिन पीछा करता है।
पाप कृत्य जो किया पिता ने,
दंड उसी का भरता है।।

पुत्र गर्व में है मदमाता,
बात स्वार्थ की अपनाता,
मात-पिता के बिन चाहे भी,
अहं भाव को दिखलाता।।

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कन्या का महत्त्व

धन होती है सुता पराया,
स्वजन सभी ऐसा कहते।
खून वही बहता है उसमें,
फिर भावों में क्यों बहते।।

शादी से पहले सब उसको,
पर धन कहते आए थे।
ब्याह बाद जब हुई पराई,
पर-घर को भिजवाए थे।।

क्यों लड़की पर धन होती है,
जन्म इसी घर में पाया।
खेली-कूदी इस घर में ही,
मन से घर यह अपनाया।।

कन्या ‘धन-पौध’-सी होती,
जन्म, बार दो पाती है।
माता के घर खुशियाँ भरती,
निज घर को फिर जाती है।।

दोनों घर की वाहक कन्या,
शुभ मंगल-पल देती है।
पहले को शुभ देकर आई,
दूजे को फल देती है।।
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भ्रूण हत्या के निवारण में सुझाव

वक़्त बदलता भाव बदलता,
चिंतन भी कुछ बदला है।
रूढ और अनजान प्रथा से,
जनमानस कुछ बदला है।।

ऐसे जन भी देखे जग में,
बिन धन, कन्या लेते हैं।
उस कन्या को सुता रूप में,
मान सदा ही देते हैं।।

पास सभी के जाकर अब ये,
बात यही बतलानी है।
कन्या दुर्गा रूपा होती,
भक्ति यही मन लानी है।।

भेद पुत्र औ पुत्री वाला,
पामर नर मन रखता है।
घर में दोनों के सुख-दुख को,
पिता रूप में चखता है।।

सदी नई आई है यारो,
अंतर ये सब दूर हुआ।
प्यार सुता औ सुत के अंदर,
अब बढ़कर भरपूर हुआ।।
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प्रभु से प्रार्थना

हे भगवन! तुम पिता जगत के,
बुद्धि सभी को सत् देना।
घर में रहें सभी हर्षाकर,
नाव दुखों की भी खेना।।

जग के मत से केवल सुत ही,
अपना वंश बढ़ाता है।
पाता दौलत निज अंशी का,
अंश तभी कहलाता है।।

जागो आज भरत के वंशी,
भेद सुता-सुत का छोड़ो।
पाकर कन्या जन्म खुशी से,
भेद विषमता के तोड़ो।।

फिर देखो घर सुंदर होगा,
होगी सुखी सकल धरती।
कन्या का सम्मान करो सब,
कन्या सृष्टि-सृजन करती।।

शपथ उठाते हैं हम सारे,
घर में भेद नहीं होगा।
त्यागेंगे हम हृदय-बुराई,
जो जग में अब तक भोगा।।

1 Comment

  1. Bhuvnesh Sharma
    23 दिसम्बर 2024 @ 9:42 पूर्वाह्न

    इस कुरीति (भ्रूण हत्या) को समाप्त करने तथा लोगों के दृष्टिकोण में परिवर्तन लाने के लिए सरकार के साथ–साथ आचार्य अनमोल ने अपनी काव्य कृति के द्वारा बहुत ही अच्छा संदेश दिया है। इस विषय में हमें भी उचित कदम उठाने चाहिए।
    …. भुवनेश शर्मा

    Reply

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